🏛️ राज्यपाल की शक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय | अनुच्छेद 200 की गहन व्याख्या
A Comprehensive Note on Supreme Court Judgment on Governor’s Power | Article 200 – in Hindi
🔷 भूमिका (Introduction)
भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जहाँ राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, न कि कार्यपालिका का प्रमुख। राज्यपाल की भूमिका, संविधान में निर्दिष्ट एक “औपचारिक/नैतिक संरक्षक” की होती है, न कि राजनीतिक निर्णायक की। परंतु हाल के वर्षों में राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं, विशेषकर जब वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को लंबित रखने लगते हैं। इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court का अप्रैल 2024 का निर्णय, भारत के संघीय ढांचे की रक्षा करने वाले मील का पत्थर साबित हुआ है।
🧾 अनुच्छेद 200 का संवैधानिक स्वरूप और सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court)
अनुच्छेद 200 भारतीय संविधान का वह प्रावधान है, जो राज्यपाल को निम्नलिखित चार विकल्प प्रदान करता है, जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होकर उनके पास भेजा जाता है:
- विधेयक को स्वीकृति देना (Assent)
- विधेयक को अस्वीकृत करना (Withhold Assent)
- पुनर्विचार हेतु विधानसभा को वापस भेजना (Return for Reconsideration) – (यह केवल साधारण विधेयकों पर लागू होता है, धन विधेयकों पर नहीं)
- राष्ट्रपति को संदर्भित करना (Reserve for President’s Consideration) – यदि विधेयक संविधान के विरुद्ध हो या राष्ट्रीय हित को प्रभावित करता हो।
यद्यपि यह प्रावधान एक संविधानिक विकल्पों की सूची प्रस्तुत करता है, परंतु यह मान लिया गया था कि राज्यपाल इनका प्रयोग “युक्तिसंगत समय” में और “संवैधानिक मर्यादा” के अंतर्गत करेंगे, न कि राजनीतिक टकराव के उद्देश्य से।
⚖️ सर्वोच्च न्यायालय(Supreme Court) का ऐतिहासिक निर्णय (2024)
📌 मामला: तमिलनाडु बनाम भारत सरकार
तमिलनाडु सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि राज्यपाल ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित अनेक विधेयकों को एक वर्ष से अधिक समय तक लंबित रखा, जिनमें NEET से संबंधित प्रवेश सुधार विधेयक प्रमुख था।
🧑⚖️ मुख्य निर्णय बिंदु:
- राज्यपाल “युक्तिसंगत समय” में निर्णय लेने के लिए बाध्य हैं – उन्हें विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है।
- संविधान राज्यपाल को राजनीतिक रूप से निष्पक्ष और विवेकशील व्यवहार की अपेक्षा करता है। वे चुनी हुई सरकार की नीति को बाधित नहीं कर सकते।
- राज्यपाल की भूमिका सहयोगात्मक होनी चाहिए, विरोधात्मक नहीं।
- राष्ट्रपति को विधेयक भेजने की शक्ति का प्रयोग सिर्फ तभी हो सकता है, जब उसमें संविधानिक जटिलताएँ निहित हों, और यह विकल्प भी बिना यथोचित कारण के उपयोग नहीं किया जा सकता।
🧠 सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) के निर्णय का प्रभाव और महत्व (Significance of the Judgment)
📌 1. विधायी प्रक्रिया की गरिमा की रक्षा:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि विधायिका द्वारा पारित विधेयक को लंबित रखना विधायी प्रक्रिया के अपमान के बराबर है। राज्यपाल का कार्य केवल संवैधानिक प्रक्रिया को सुनिश्चित करना है, उसे विघ्न डालना नहीं।
📌 2. संघीय ढांचे की रक्षा:
राज्यपाल की शक्ति सीमित करके, न्यायालय ने राज्यों की विधायी संप्रभुता को संरक्षित किया है। यह संघवाद की आत्मा के अनुरूप है।
📌 3. राजनीतिक दखलंदाजी पर रोक:
राज्यपालों को केंद्र सरकार का प्रतिनिधि मानकर, उन्हें राज्य सरकारों की वैध प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की दिशा में यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है।
📌 4. संवैधानिक उत्तरदायित्व की पुनर्पुष्टि:
राज्यपाल अब अपने निर्णयों के लिए कारणों की व्याख्या देने के लिए बाध्य होंगे, जिससे पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बढ़ेगा।
🔷 अनुच्छेद 201 का मूलभाव (Essence of Article 201)
जब कोई राज्यपाल किसी राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करता है, तब अनुच्छेद 201 लागू होता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ऐसे विधेयक जो संविधान, राष्ट्रीय नीति या केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र से टकराते हों, उन्हें केंद्रीय स्तर पर अंतिम स्वीकृति या अस्वीकृति मिल सके।
🧾 अनुच्छेद 201 क्या कहता है? (विधायी प्रक्रिया के अनुसार)
“जब कोई विधेयक, जिसे राज्य विधानमंडल ने पारित किया है, राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित किया जाता है और राष्ट्रपति द्वारा उसे स्वीकृति प्रदान नहीं की जाती है, तो वह विधेयक क़ानून नहीं बन सकेगा।”
इसका मतलब:
-
यदि राज्यपाल किसी विधेयक को अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति को भेजते हैं,
-
और राष्ट्रपति उस विधेयक को स्वीकृति नहीं देते हैं,
-
तो वह विधेयक कभी भी कानून नहीं बन सकेगा, चाहे वह राज्य में पारित हो चुका हो।
📌 प्रक्रिया (Process under Article 201)
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राज्य विधायिका विधेयक पारित करती है।
-
राज्यपाल को विधेयक प्रस्तुत किया जाता है।
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राज्यपाल यदि समझते हैं कि:
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विधेयक संविधान के विरुद्ध है,
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विधेयक केंद्र के अधिकार क्षेत्र से टकराता है,
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या यह राष्ट्रीय हित को प्रभावित कर सकता है — तो वे विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकते हैं (अनुच्छेद 200)।
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इसके बाद, राष्ट्रपति उस विधेयक को:
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स्वीकृति दे सकते हैं (तब वह कानून बन जाएगा),
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या स्वीकृति न देकर उसे खारिज कर सकते हैं (अनुच्छेद 201 के अनुसार),
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या विचाराधीन रख सकते हैं (जो व्यावहारिक समस्या है, क्योंकि इसमें समय सीमा नहीं है)।
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📖 विश्लेषण UPSC/UPPCS Mains के दृष्टिकोण से (Mains Oriented Analysis)
🔸 प्रश्न – 1:
“राज्यपाल की शक्तियों की सीमा संविधान में स्पष्ट है, किंतु व्यवहार में यह सीमाएं बार-बार लांघी जाती हैं।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर में लिख सकते हैं:
- अनुच्छेद 200 की भावना
- विधायिका और कार्यपालिका का संतुलन
- न्यायिक व्याख्या (2024 निर्णय)
- संघवाद और जवाबदेही का सिद्धांत
🔸 प्रश्न – 2:
“राज्यपाल का संवैधानिक विवेक और लोकतांत्रिक मर्यादा – दोनों का तालमेल आवश्यक है।” स्पष्ट करें।
उत्तर में लिख सकते हैं:
- विवेक की संवैधानिक परिभाषा
- अनुच्छेद 163 और 200 का सामंजस्य
- न्यायपालिका की भूमिका
- लोकलाज एवं उत्तरदायित्व
📌 PCS-J और RO/ARO परीक्षार्थियों के लिए विधिक दृष्टिकोण Supreme Court के नियम
- अनुच्छेद 200 का मूल पाठ और व्याख्या
- “असेंटर शक्तियाँ” की न्यायिक समीक्षा
- राज्यपाल की शक्तियाँ – विवेकाधीन या बाध्यकारी?
- संविधान की प्रस्तावना के आलोक में विवेचना
🔚 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में राज्यपाल की भूमिका संविधान की भावना के अनुरूप एक लोकतांत्रिक संतुलनकारी शक्ति की है, न कि एक राजनीतिक अड़चन की। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक ऐतिहासिक कदम है, जो संविधान की आत्मा, विधायी स्वायत्तता, और लोकतंत्र की मर्यादा को बनाए रखने का संदेश देता है।
यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि भारत में विधानसभा और राज्य सरकारें संविधान के अनुरूप कार्य कर सकें, बिना किसी राजनीतिक व्यवधान के। आने वाले वर्षों में यह फैसला भारतीय संघवाद के भविष्य को दिशा देगा और संविधान की मूल भावना को संरक्षित रखेगा।
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